दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सात साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म और उसकी हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए व्यक्ति की फांसी की सजा रद्द कर दी है। मामला 11 साल पुराना है। रेप और हत्या के आरोपी अख्तर अली के अलावा इस मामले के सह आरोपी प्रेमपाल वर्मा को भी सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने बरी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के फैसले को ना केवल रद्द कर दिया है, साथ ही याचिकाकर्ता व सह आरोपी को बरी करने का आदेश जारी किया है। उत्तराखंड हाईकोर्ट के 18 अक्टूबर, 2019 के अपने फैसले दोनों आरोपियों की दोषसिद्धि और मौत की सज़ा को बरकरार रखते हुए आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, कानून में यह स्पष्ट रूप से स्थापित है कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी को दृढ़तापूर्वक और निर्णायक रूप से स्थापित किया जाना चाहिए। इससे संदेह की गुंजाइश और आशंका समाप्त हो जाती है। जहां पर दो नजरिया हो वहां अभियुक्त के पक्ष में एक को ही अपनाना चाहिए। इस मामले में अभियोजन पक्ष घटना का उद्देश्य साबित करने में नाकाम रहा है। वैज्ञानिक साक्ष्य असंगतताओं और गंभीर खामियों से ग्रस्त हैं। ऐसी परिस्थितियों में दोषसिद्धि को बरकरार रखना पूरी तरह से असुरक्षित होगा। फांसी जैसे कठोर सजा तो अमृत्युदंड जैसी कठोर सजा तो और भी अधिक असुरक्षित है। पीठ ने कहा कि फांसी की सजा केवल दुर्लभतम मामलों में ही निर्विवाद साक्ष्यों के आधार पर दिया जा सकता है। निचली अदालत ने मृत्युदंड देने से पहले परिस्थितियों का उचित मूल्यांकन नहीं किया था।
ये है घटना
घटना 20 नवंबर, 2014 की है, जब पीड़िता बालिका हल्द्वानी में पारिवारिक विवाह स्थल से लापता हो गई थी। पुलिस को चार दिन बाद शीशमहल विवाह स्थल के पास गौला नदी के जंगल में बच्ची का शव मिला। शव के बार में बच्ची के चचेरे भाई ने थाना में यह सुचना दी थी। अभियोजन पक्ष के अनुसार, आरोपी ने पीड़िता बालिका को जंगल ले गया, उसका यौन उत्पीड़न किया और उसे पत्तों से ढककर छोड़ दिया।
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POCSO कोर्ट ने सुनाई थी फांसी की सजा
हल्द्वानी के स्पेशल POCSO कोर्ट ने अख्तर अली को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376ए, 363, 201; POCSO Act, 2012 की धारा 3 सहपठित 4, 5 सहपठित 6 और 7 सहपठित 8, और IT Act की धारा 66 सी के तहत दोषी ठहराया। उन्हें IPC की धारा 376ए और POCSO Act की धारा 4, 5, 6 और 7 के साथ धारा 16 और 17 के तहत फांसी की सजा सुनाई। IPC की धारा 363 और 201 के तहत सात-सात साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई।
प्रेम पाल वर्मा को IPC की धारा 212 और IT Act की धारा 66सी के तहत दोषी ठहराया। IPC की धारा 363, 201, 120-बी, 376ए और POCSO प्रावधानों सहित अन्य आरोपों से बरी कर दिया गया। निचली अदालत ने तीसरे आरोपी को बरी कर दिया। हाई कोर्ट ने अख्तर अली की दोषसिद्धि और मृत्युदंड को बरकरार रखा, जबकि दोनों आरोपियों को IT Act के आरोप से बरी कर दिया।
नहीं मिले गवाह तो पुलिस अधिकारी को बना दिया गवाह
सुप्रीम कोर्ट ने अख्तर अली की गिरफ्तारी में गंभीर विसंगतियां पाईं। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि पुलिस ने “गुप्त शिकायतकर्ता” की सूचना और उससे जुड़े दो मोबाइल नंबरों का उपयोग करके 27 नवंबर को अली का लुधियाना में पता लगाया और उसे वहीं गिरफ्तार कर लिया। न्यायालय ने पाया कि पुलिस दल के लुधियाना जाने की कोई सामान्य डायरी प्रविष्टि नहीं है और न ही गिरफ्तारी का कोई प्राधिकरण है। इसके अलावा, कॉल रिकॉर्ड जनवरी, 2015 में ही प्राप्त किए गए – उसकी गिरफ्तारी के बाद और वे नंबर अली के नाम पर नहीं थे। सिम नंबरों से अख्तर अली का संबंध दर्शाने वाला कोई सबूत नहीं था। स्थानीय लोगों ने गिरफ्तारी और तलाशी प्रक्रिया के दौरान गवाही देने से इनकार किया। इसलिए गिरफ्तार करने वाले अधिकारी ने अपने साथी पुलिस अधिकारियों को गवाह बना लिया। इसके अलावा, “गुप्त शिकायतकर्ता” की कभी पहचान नहीं की गई, उसे पेश नहीं किया गया, या उसकी जांच नहीं की गई। न्यायालय ने यह अविश्वसनीय पाया कि लुधियाना में अज्ञात व्यक्ति बिहार के एक ड्राइवर अख्तर अली को पहचान सकता है, जो पहली बार लुधियाना आया था।
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सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को दी हिदायत
ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट को मृत्युदंड देने से पहले अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए। मृत्युदंड की सजा केवल “दुर्लभतम” मामलों में ही दी जाए। अभियोजन पक्ष के मामले में ज़रा सा भी संदेह या कमज़ोरी ऐसी सज़ा देने के विरुद्ध होनी चाहिए। सबूतों और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के उच्चतम मानकों को सुनिश्चित किए बिना मृत्युदंड की सजा देना ना केवल कानून के शासन को कमज़ोर करता है, बल्कि एक मानव जीवन को हमेशा के लिए नष्ट करके न्याय की सबसे गंभीर विफलता का जोखिम भी उठाता है।








