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कर्मचारियों के हित मे हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला: सहायक प्रध्यापक का निलंबन किया रद्द
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बिलासपुर। सहायक प्राध्यापक की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने कहा, यद्यपि निलंबन एक दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती, लेकिन यह व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्थिति पर गहरा असर डालता है। जब यह कार्रवाई बिना उचित आधार, सुनवाई के अवसर और द्वेषपूर्ण मंशा के तहत की जाए, तो यह न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत हो जाती है। इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने निलंबन आदेश को अवैध ठहराते हुए रद्द कर दिया है। कोर्ट ने राज्य शासन की कार्रवाई को प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन माना है।

सहायक प्राध्यापक कमलेश दुबे ने अधिवक्ता मतीन सिद्दीकी के माध्यम से हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिका की सुनवाई जस्टिस सचिन सिंह राजपूत के सिंगल बेंच में हुई। याचिका की सुनवाई के बाद सिंगल बेंच ने शासकीय बृजलाल वर्मा महाविद्यालय पलारी में राजनीति विज्ञान के सहायक प्राध्यापक के निलंबन आदेश को अवैध, मनमाना और दुर्भावनापूर्ण करार देते हुए रद्द कर दिया है। बेंच ने निलंबन आदेश को “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन” मानते हुए टिप्पणी करते हुए कहा कि यह कार्यवाही न केवल सेवा नियमों के विरुद्ध थी, बल्कि समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाली भी थी।

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ये है मामला
याचिकाकर्ता कमलेश दुबे ने अपनी याचिका में लिखा है, सहायक प्राध्यापक के पद पर महाविद्यालय में तकरीबन 23 वर्षों से सेवा दे रहे हैं, सेवा रिकॉर्ड पूरी तरह निष्कलंक है। 11 सितंबर 2015 को कॉलेज में कंप्यूटर शिक्षक के पद पर नियमित नियुक्ति के चलते मानदेय पर कार्यरत प्रीति साहू को कार्यमुक्त कर दिया गया। इसके तुरंत बाद कॉलेज में छात्रों के एक वर्ग ने आंदोलन शुरू कर दिया, जिसमें प्रीति साहू की पुनर्नियुक्ति की मांग की गई।

17 सितंबर 2015 को छात्र संघ द्वारा कॉलेज प्रशासन को एक ज्ञापन सौंपा गया, जिसमें कॉलेज की मूलभूत सुविधाओं जैसे वाई-फाई, कैंटीन, स्वच्छता, जल आपूर्ति आदि की शिकायतें थीं। साथ ही यह भी आरोप था कि प्रीति साहू को व्यक्तिगत द्वेष के चलते हटाया गया है। इस ज्ञापन में कहीं भी उसके विरुद्ध कोई शिकायत दर्ज नहीं थी।

हालांकि, इसके कुछ ही दिन बाद एक स्थानीय अखबार में खबर प्रकाशित हुई, जिसमें उस पर छात्राओं से दुर्व्यवहार करने के आरोप लगाए गए। इसके तुरंत बाद, 21 सितंबर 2015 को कॉलेज प्रशासन द्वारा एक एकपक्षीय जांच की गई, जिसमें कुछ छात्राओं के बयान दर्ज किए गए। इसी रिपोर्ट के आधार पर 23 सितंबर 2015 को निलंबन आदेश जारी कर दिया गया। आदेश जारी करने से पहले उनका पक्ष भी नही सुना गया।

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याचिकाकर्ता के अधिवक्ता मतीन सिद्दीकी ने ये कहा
याचिकाकर्ता की ओर से पैरवी अधिवक्ता मतीन सिद्दीकी ने कहा, यह पूरा घटनाक्रम पूर्व नियोजित और दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होता है। न तो किसी छात्रा ने याचिकाकर्ता प्राध्यापक के खिलाफ पूर्व में कोई शिकायत की थी, और न ही प्रीति साहू ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसी कोई बात उठाई थी। अखबार में छपी खबर को आधार बनाकर किसी की छवि खराब करना और इसे आधार बनाकर निलंबन जैसी सख्त कार्यवाही करना पूरी तरह अनुचित और असंवैधानिक है।

शिकायतों के आधार पर निलंबन की कार्रवाई अनुचित
राज्य शासन की ओर से पैरवी करते हुये महाधिवक्ता कार्यलय के विधि अधिकारी ने कहा, छात्राओं की शिकायतों के मद्देनजर यह निलंबन आवश्यक था। कोर्ट ने राज्य शासन के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि सिर्फ शिकायतों या समाचार पत्र में प्रकाशित खबरों के आधार पर कोई कर्मचारी निलंबित नहीं किया जा सकता। जब तक कि उसके विरुद्ध उचित जांच, प्रमाण और सुनवाई न हो।

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निलंबन व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्थिति पर गहरा असर डालता है
कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा, यद्यपि निलंबन एक दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती, लेकिन यह व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा और मानसिक स्थिति पर गहरा असर डालता है। जब यह कार्रवाई बिना उचित आधार, सुनवाई के अवसर और दृष्टिगोचर द्वेषपूर्ण मंशा के तहत की जाए, तो यह न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत हो जाती है। इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने निलंबन आदेश को अवैध ठहराते हुए रद्द कर दिया है।


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