
रायपुर। छत्तीसगढ़ में हुए 638 करोड़ रुपये के NGO घोटाले की.CBI ने जांच तेज कर दी है।समाज कल्याण विभाग से अफस्रोंने महत्वपूर्ण दस्तावेजों की जब्ती बनाई है। घोटाले में आईएएस सहित राज्य सेवा संवर्ग के 14 अफसरों की संलिप्तता सामने आई है। बता दें बिलासपुर हाई कोर्ट के निर्देश के बाद सीबीआई ने जांच शुरू कर दी है।
छत्तीसगढ़ के NGO घोटाले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो CBI ने तेज कर दी है। CBI के अफसर माना समाज कल्याण विभाग कार्यालय पहुंचे और डिप्टी डायरेक्टर से स्टेट रिसोर्स सेंटर SRC से संबंधित दस्तावेज मांगे। अफसरों ने NGO से जुड़े तीन बंडल दस्तावेजों की फोटो कॉपी अपने साथ ले गए। CBI ने कहा है कि इन दस्तावेजों की जांच की जाएगी और उसके बाद आगे की कार्रवाई की जाएगी। इस मामले में एक पूर्वमंत्री और 7 IAS सहित कुल 14 लोगों का नाम सामने आया है।
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NGO क्यों बनाया और कौन-कौन थे फाउंडर
वर्ष 2004 में समाज कल्याण मंत्री रहीं रेणुका सिंह, रिटायर्ड IAS विवेक ढांढ, MK राउत, डॉ. आलोक शुक्ला, सुनील कुजूर, BL अग्रवाल, सतीश पांडे और पीपी श्रोती ने मिलकर 2 NGO बनाए। NGO के करप्शन में राज्य प्रशासनिक सेवा के 6 अधिकारियों को भी शामिल किया।
NGO को दिव्यांगों की सहायता के लिए बनाया था, जिसके तहत सुनने की मशीनें, व्हील चेयर, ट्राई साइकिल, कैलिपर और कृत्रिम अंग जैसी चीजें वितरण करना, अवेयर करना, उनकी देख-रेख करना था। पर यह सब कागजों में ही था। मौके पर कुछ भी नहीं।
बिना मान्यता के चल रहा था NGO
मंत्री और IAS ने ऐसा सिस्टम बनाया था कि NGO को समाज कल्याण विभाग से मान्यता के बगैर केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं के तहत NGO के खाते में करोड़ों रुपए ट्रांसफर हुए। ये फर्जीवाड़ा तकरीबन14 साल तक चला।
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नियमों को रखा ताक पर
नियम कहता है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी NGO में मेंबर नहीं हो सकता है, वह अवैध है। लेकिन तत्कालीन मंत्री के साथ अधिकारियों ने मिलकर ये संस्था बना ली। NGO बनने के 45 दिन में चुनाव होना चाहिए था, लेकिन 17 साल तक कोई चुनाव नहीं हुआ। प्रबंधकारिणी की कोई बैठक नहीं हुई। इसका कोई ऑडिट नहीं किया गया।
ऐसे खुला घोटाले का राज
NGO के घोटाले की जानकारी वर्ष 2016 में हुई थी। संविदा कर्मचारी कुंदन सिंह ठाकुर 2008 से मठपुरैना स्वावलंबन केंद्र (PRRC) में संविदा पर नौकरी कर रहे थे। इसी दौरान पता चला कि साथ में काम करने वाले कुछ कर्मचारी रेगुलर हो रहे हैं, तो वह भी अपनी नौकरी रेगुलर कराने के लिए समाज कल्याण विभाग में आवेदन देने पहुंचे। इस दौरान कुंदन को पता चला कि वह पहले से सहायक ग्रेड-2 के पद पर पदस्थ हैं। उनके नाम पर दूसरी जगह से 2012 से वेतन निकल रहा है। ये सुनकर कुंदन सकते में आ गए। इसके बाद कुंदन ने RTI लगाई और पूरी जानकारी जुटाई।
30 कर्मचारियों के नाम हर महीने निकलता रहा वेतन
RTI से पता चला कि उनके ही जैसे रायपुर में 14 और बिलासपुर में 16 कर्मचारी हैं, जिन्हें दो जगहों पर पदस्थ दिखाया गया। हर महीने उनके नाम पर सैलरी निकाली जा रही है। कुंदन ने NGO स्कैम के शिकार दूसरे कर्मचारियों से संपर्क किया, लेकिन किसी ने साथ नहीं दिया। मामला कोर्ट पहुंचने पर कुंदन को नौकरी से निकाल दिया गया।
टाइमलाइन-SRC और PRRC NGO घोटाले
- 16 नवंबर 2004 कागजों पर दिव्यांगों के लिए SRC-PRRC नाम से 2 संस्थाएं बनाई गईं। 2020 तक घोटाला किया।
- 2004 NGO का संचालन सरकारी विभाग जैसा। 2020 तक कर्मचारियों की 2 जगहों से वेतन निकाला गया।
- 2012 कुंदन ठाकुर 2008 से नौकरी कर रहे थे। 4 साल बाद पता चला उनके नाम से डबल वेतन निकल रहा। कुंदन ने RTI के जरिए जानकारी निकाली। रायपुर में 14, बिलासपुर में 16 अन्य कर्मचारी भी 2 जगह से वेतन पा रहे थे।
- 28 सितंबर 2018 मुख्य सचिव अजय सिंह ने NGO में नियमित बैठक और ऑडिट करने के निर्देश दिए।
- 30 जनवरी 2020 हाईकोर्ट ने कुंदन की याचिका को जनहित याचिका (PIL) में तब्दील किया। CBI जांच के आदेश दिए।
- 25 सितंबर 2025 बिलासपुर हाईकोर्ट ने अब दोबारा CBI जांच के आदेश दिए। सैकड़ों करोड़ का घोटाला हुआ है।
ये हैं NGO घोटाले के आरोपी
- विवेक ढांढ (मुख्य सचिव रैंक)
- एमके राउत (मुख्य सचिव रैंक)
- डॉ. आलोक शुक्ला (अतिरिक्त मुख्य सचिव, शिक्षा विभाग)
- सुनील कुजूर (प्रमुख सचिव, समाज कल्याण)
- बीएल अग्रवाल (प्रमुख सचिव, लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण)
- सतीश पांडे (उप सचिव, वित्त)
- पीपी श्रोती (संचालक, पंचायत एवं समाज सेवा संचालनालय)
स्कैम में राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी
- राजेश तिवारी
- सतीश पांडेय
- अशोक तिवारी
कागजों में सबकुछ, मौके पर कुछ भी नहीं‘
यह भी दावा किया गया, पीआरआरसी में प्रतिदिन लगभग 22 से 25 कृत्रिम अंगों का निर्माण किया जा रहा है और 2012 से लगभग 4314 व्यक्तियों को कृत्रिम अंग और निःशुल्क उपचार प्रदान किया गया है। लेकिन इसके समर्थन में एक भी दस्तावेज संलग्न नहीं किया गया है जिसमें कृत्रिम अंगों के निर्माण के लिए मशीनों की खरीद, कृत्रिम अंगों के निर्माण और उपचार प्रदान करने के स्थान आदि का उल्लेख हो। राज्य का यह भी कहना है कि राज्य में कोई अन्य पीआरआरसी नहीं है। बिलासपुर स्थित पीआरआरसी के कर्मचारियों को पारिश्रमिक के भुगतान को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, न्यायालय द्वारा जारी निर्देश के अनुसरण में प्रस्तुत रिपोर्ट और हलफनामे से राज्य प्राधिकारियों ने इनकार नहीं किया है और इस प्रकार याचिकाकर्ता द्वारा रिट याचिका में लगाए गए आरोपों को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उपर्युक्त परिस्थितियों और वित्त सचिव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट और मुख्य सचिव के हलफनामे के बावजूद, प्राधिकारियों द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई है।
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सीबीआई जाँच की मांग का सरकार ने किया था विरोध
अपर महाधिवक्ता ने सीबीआई जाँच की मांग का विरोध करते हुए कहा कि राज्य पुलिस इस उद्देश्य के लिए पूरी तरह से सक्षम है। मामला स्थानीय प्रकृति का है और इसका कोई अंतर-राज्यीय या अंतरराष्ट्रीय प्रभाव नहीं है जिससे सीबीआई द्वारा जाँच की आवश्यकता हो। संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय को सीबीआई द्वारा जाँच का निर्देश देने की शक्ति का प्रयोग केवल संयमित, सावधानीपूर्वक और सावधानी से किया जाना चाहिए।
रिट याचिका को हाई कोर्ट ने PIL में बदला
हाई कोर्ट ने रजिस्ट्री को मामले की जांच करने और उचित पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया। , रिट याचिका को उसके बाद “WPPIL” में परिवर्तित कर दिया गया। 30 जुलाई 2018 की कार्यवाही में, इस न्यायालय ने रिट याचिका में दिए गए तथ्यों और संबंधित पक्षों के अधिवक्ताओं के प्रस्तुतीकरण की सराहना करते हुए, मुख्य सचिव, छत्तीसगढ़ सरकार, रायपुर को रिट याचिका में लगाए गए आरोपों की स्वतंत्र जांच करने का निर्देश दिया। इसके अनुसरण में,। राज्य सरकार ने चमेली चंद्राकर, जिला पुनर्वास अधिकारी, बिलासपुर के हलफनामे के साथ 1 अक्टूबर 2018 को मुख्य सचिव के हस्ताक्षर सहित की जांच रिपोर्ट प्रस्तुत की। जांच रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि सचिव, सामान्य प्रशासन और वित्त विभाग, छत्तीसगढ़ सरकार को जांच करने और रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया था। सचिव, सामान्य प्रशासन विभाग और वित्त विभाग द्वारा जांच के तीन बिंदु तैयार करते हुए जांच शुरू की गई। सचिव ने अपनी रिपोर्ट में वित्तीय अनियमितताओं को स्वीकार किया है, तथा राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत लेखापरीक्षा रिपोर्ट से भी यह प्रतिबिंबित होता है कि कोई लेखा नहीं रखा गया है, व्यय करने के लिए कोई अनुमति नहीं ली गई है, आदि, यह देखा जा सकता है कि इस न्यायालय के समक्ष रिकार्ड में प्रथम दृष्टया सामग्री उपलब्ध है जो यह दर्शाती है कि इसमें भारी धनराशि।शामिल है, जिससे राज्य के खजाने को नुकसान हुआ है तथा राज्य सरकार ने इस संबंध में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
प्रत्येक सार्वजनिक पदधारी के आचरण की जाँच करते समय इन बातों को ध्यान में रखना अपेक्षित है। यह सामान्य बात है कि सार्वजनिक पदधारियों को कुछ शक्तियाँ सौंपी जाती हैं जिनका प्रयोग केवल जनहित में किया जाना है और इसलिए वे जनता के प्रति अपने पद को विश्वास में रखते हैं। उनमें से किसी के द्वारा भी सत्यनिष्ठा के मार्ग से विचलन विश्वासघात के समान है और उसे दबाने के बजाय उसके साथ कठोरता से पेश आना चाहिए। यदि आचरण अपराध के समान है, तो उसकी शीघ्र जाँच होनी चाहिए और प्रथम दृष्टया जिस अपराधी के विरुद्ध मामला बनता है, उसके विरुद्ध शीघ्रता से मुकदमा चलाया जाना चाहिए ताकि कानून की गरिमा बनी रहे और कानून का शासन सिद्ध हो। न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह कानून के शासन को लागू करे और इसलिए कानून के शासन के क्षरण से बचाए।
एक दो नहीं पूरी 31 गड़बड़ियां
याचिकाकर्ता और कुछ अन्य कर्मचारियों के नाम पर वेतन आहरण। मुख्य सचिव, छत्तीसगढ़ सरकार, रायपुर द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में, सचिव, समाज कल्याण विभाग, छत्तीसगढ़ सरकार, रायपुर के माध्यम से किए गए विशेष ऑडिट में 31 वित्तीय अनियमितताएं पाई गई हैं, जो भारी भ्रष्टाचार का संकेत देती हैं।
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मंत्री को राहत
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है, संबंधित विभाग की तत्कालीन मंत्री को पक्षकार प्रतिवादी बनाया गया है, लेकिन इस रिट याचिका में उनके खिलाफ कोई राहत नहीं मांगी गई है और इसलिए, यह आदेश उनके संबंध में नहीं होगा।
सीबीआई के वकील ने ये कहा
सीबीआई के वकील ने कोर्ट को बताया कि इस न्यायालय के पहले के आदेश के अनुसार, एफआईआर संख्या RC2222020A0001 PS SPE/CBI/AC-IV/भोपाल 5 फरवरी .2020 पहले से ही पंजीकृत है, हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुपालन में इसे रोक कर रखा गया है। इसका अर्थ है कि, एफआईआर पहले से ही पंजीकृत है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस न्यायालय के 30 जनवरी 2020 के पहले के आदेश को केवल इस आधार पर रद्द कर दिया है कि निजी प्रतिवादियों को नोटिस नहीं दिया गया था और उन्हें सुने बिना आदेश पारित किया गया है। अब नोटिस के बाद प्रतिवादी उपस्थित हुए और उन्होंने इस बात पर विवाद नहीं किया कि वे प्रबंध समिति के सदस्य भी थे। हालाँकि, कार्यवाही में प्रस्तुत मुख्य सचिव की रिपोर्ट अडिग है। इसलिए, ऊपर उल्लिखित निर्णयों और ऊपर चर्चा किए गए तथ्यों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून और की गई टिप्पणियों पर विचार करने के बाद, हमारा मानना है कि इस मामले में सच्चाई का पता लगाने के लिए सीबीआई द्वारा निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच की आवश्यकता है।








